- किडनी स्टोन में फायदेमंद अगर आपको किडनी स्टोन की समस्या है, तो आप सर्दी के मौसम में गहत की दाल का सेवन कर सकते हैं। …
- खांसी-जुकाम में दिलाए आराम …
- डायरिया या दस्त ठीक करे …
- वजन घटाए गहत की दाल …
- कब्ज से राहत दिलाए …
- डायबिटीज या मधुमेह में लाभदायक
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Macrotyloma uniflorum (horse gram, kulthi bean, hurali, Madras gram) is one of the lesser known beans. The horse gram is normally used to feed horses, though it is also commonly used in cooking. In traditional Ayurvedic cuisine, horse gram is considered a food with medicinal qualities. It is prescribed for persons suffering from jaundice or water retention and as part of a weight loss diet.
पहाड़ में सर्द मौसम में गहत की दाल लजीज मानी जाती है। प्रोटीन तत्व की अधिकता से यह दाल शरीर को ऊर्जा देती है, साथ ही पथरी के उपचार की औषधि भी है। यूं तो गहत आमतौर पर एक दाल मात्र है, जो पहाड़ की दालों में अपनी विशेष तासीर के कारण खास स्थान रखती है| यह दाल गुर्दे के रोगियों के लिए अचूक दवा मानी जाती है। आज हम फिर बात कर रहे हैं उत्तराखंड के एक ऐसे बहुमूल्य उत्पाद की जिसका नाम सुनते ही हमें इससे अपना परम्परागत सम्बन्ध याद आने लगता है। गहत उत्तराखण्ड में उगायी जाने वाली एक महत्वपूर्ण फसल है जिसका वैज्ञानिक नाम Macrotyloma uniflorum L. जो कि Fabaceae कुल का पौधा है। इसे ही Dolichos uniflorum भी कहते हैं। वैसे तो गहत का मुख्य स्रोत अफ्रीका माना जाता है लेकिन भारत में इसका इतिहास बहुत पुराना है। विश्व में पाए जाने वाली कुल 240 प्रजातियों में से 23 प्रजातियां सिर्फ भारत में पायी जाती हैं जबकि शेष प्रजातियां अफ्रीका में पायी जाती हैं।
गहत को इसके अलावा और भी बहुत नामों से जाना जाता है जैसे कि अंग्रेजी में Horse gram, हिन्दी में कुलध, तेलुगू में उलावालु, कन्नड़ में हुरूली, तमिल में कोलू, संस्कृत में कुलत्थिका, गुजराती में कुल्थी तथा मराठी में डुल्गा आदि। भारत के अलावा चीन, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका तथा इंडोनेशिया में भी गहत का उत्पादन किया जाता है। मुख्य रूप से भारत में गहत का उत्पादन लगभग सभी राज्यों में किया जाता है लेकिन कुछ प्रमुख राज्यों से भारत के कुल उत्पादन में 28 प्रतिशत कर्नाटक, 18 प्रतिशत तमिलनाडु, 10 प्रतिशत महाराष्ट्र, 10 प्रतिशत ओडिशा तथा 10 प्रतिशत आंध्र प्रदेश का योगदान है।
भारत में गहत मुख्यतः रूप से असिंचित दशा में उगाया जाता है और जहां तक उत्तराखण्ड में गहत उत्पादन है यह परम्परागत दूरस्थ खेतो में उगाया जाता है क्योंकि गहत की फसल में सूखा सहन करने की क्षमता होती है, साथ ही नाइट्रोजन फिक्ससेशन करने की भी क्षमता होती है। इसकी खेती के लिये 20 से 30 डिग्री सेल्शियस, जहाँ 200 से 700 मिलीमीटर वर्षा होती है, उपयुक्त पायी जाती है। गहत बीज का उत्पादन भारत में 150 से 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर किया जाता था, मगर आई0सी0आर0आई0एस0ए0टी0, हैदराबाद द्वारा वर्ष 2005 में उच्च गुणवत्ता वाली प्रजाति विकसित की गयी जिससे गहत बीज उत्पादन बढ़कर 1100 से 2000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया है। गहत की मुख्यतः 02 प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमें से कि एक जंगली तथा दूसरी खेती कर उगायी जाती हैं। यहां सामान्यतः गहत के बीज लाल, सफेद, काला तथा भूरा रंग के पाये जाते हैं। गहत को सामान्यतः दाल के रूप में प्रयोग किया जाता है जो कि गरीबों के भोजन में शामिल किया गया है। गहत में प्रोटीन तथा कार्बोहाईड्रेड की प्रचूर मात्रा होने के कारण आज गहत का उपयोग सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न खाद्य तथा पोषक पदार्थों के रूप में किया जा रहा है। इसके बीज में कार्बोहाईड्रेड 57.3 ग्राम, प्रोटीन 22.0 ग्राम, फाइबर 5.3 ग्राम, कैरोटीन 11.9 आई0यू0, आयरन 7.6 मिलीग्राम, कैल्शियम 0.28 मिलीग्राम, मैग्नीशियम 0.18 मिलीग्राम, मैग्नीज 37.0 मिलीग्राम, फोस्फोरस 0.39 मिलीग्राम, कॉपर 19.0 मिलीग्राम तथा जिंक 0.28 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते हैं।
परम्परागत रूप से ही गहत का उपयोग इसकी विशेषताओ के अनुरूप किया जाता है। इसकी प्रकृति गरम माने जाने के कारण इसका मुख्य उपयोग सर्दियों में या अधिक ठंड होने पर अधिक किया जाता है। दास, 1988 तथा पेसीन, 1999 द्वारा अपने शोध में गहत को कैल्शियम तथा कैल्शियम फास्फेट स्टोन को गलाने तथा बनने से रोकने के लिये पाया गया। एक आयुर्वेदिक औषधि सिस्टोन में भी गहत को मुख्य भाग में लिया जाता है जो कि किडनी स्टोन के लिये प्रयोग की जाती है। इसके अलावा अन्य विभिन्न शोधों में भी इसके उपयोग को किडनी रोगो के रूप में उपयुक्त पाया गया है। इसमें फाइटिक एसिड तथा फिनोलिक एसिड की अच्छी मात्रा होने के कारण इसे सामान्य कफ, गले में इन्फेक्शन , बुखार तथा अस्थमा आदि में प्रयोग किया जाता है। भारतीय कैमिकल टैक्नोलॉजी संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये एक शोध में बताया गया है कि गहत के बीज में प्रोटीन टायरोसिन फॉस्फेटेज 1-बीटा एन्जाइम को रोकने की क्षमता होती है जो कि कार्बोहाईड्रेड के पाचन को कम कर शुगर को घटाने में मदद करता है तथा साथ ही शरीर में इन्सुलिन रेजिसटेंस को भी कम करता है।
उत्तराखण्ड में गहत को बाजार उपलब्ध न होने के कारण स्थानीय काश्तकार केवल स्थानीय विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत चावल, नमक एवं नगदी के बदले बेच देते हैं जबकि राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर में गहत 100 से 200 रूपये प्रति किलोग्राम तक बेचा जाता है। उत्तराखण्ड गहत स्वयं में एक ब्रांड होने के कारण बड़े बाजारों में इसकी मांग रहती है जिसकी औषधीय तथा न्यूट्रास्यूटिकल महत्ता को देखते हुये आज विभिन्न कम्पनियां नये-नये शोध कर उत्पाद बना रही है तथा भविष्य में इसकी बढ़ती मांग हेतु इसके बहुतायत उत्पादन की आवश्यकता है।
राज्य के परिप्रेक्ष्य में गहत की खेती यदि वैज्ञानिक एवं व्यवसायिक रूप में की जाय तथा दूरस्थ खेतो में जो कि बंजर होते जा रहे है में भी की जाये तो यह राज्य की आर्थिकी का एक बेहतर प्रायः बन सकता है।
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